कविता-खाएन-कमाएन रो-धो के…!!
रथिया सुतेन बिहनिया उठेन खाएन-कमाएन रो-धो के…!
संझा मंझनिया गांजा दारू कलह उगाएन बो-बो के…!!
रोज के आवक दू-चार सौ अउ
रोज के खरचा अनकटार
आधा कमाई ल हमीं उड़ाएन
चिरई चिंआँ बर गारी मार
दुख के धान ल लाई कस फोरेन गरम करहइया खो-खो के…!
संझा मंझनिया गांजा दारू कलह उगाएन बो-बो के…!!
सिक्छा दिक्छा के लेवा सहारा
अंगना के बिरवा रुँख बनै
थाँव-थाँव म फर के जोत्था
घर-भर सुख के छाँव तनैं
पहुँना झड़कैं दार अउ भात रात पहावैं सो-सो के…!
संझा मंझनिया गांजा दारू कलह उगाएन बो-बो के…!!
जीवन बिताना कला ए संगी
मंतर बिन अन्तर्मन सुन्ना
मन म जगमग जोत बरै
जाति धरम संस्कृतियो ल गुना
निरमल निश्छल बना लेवा मन सुसंस्कारी हो-हो के…!
संझा मंझनिया गांजा दारू कलह उगाएन बो-बो के…!!
रचना- जोहन भार्गव सेंदरी बिलासपुर छत्तीसगढ़
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