कमीना कुजात मन…!!
गुंडागरदी लंदी-फंदी
करथे कमीना के जात मन…!
घुसा लात खाए के बुता लात खाए के
करथे कमीना कुजात मन…!!
दारू पीययँ अउ गारी बकयँ
आघू ले ठेनी झगरा करयँ
अइसन मनखे बेर्रा मन के
कनपट ल झाड़यँ सौ हाथ मन…!
घुसा लात खाए के बुता लात खाए के
करथे कमीना कुजात मन…!!
बिघवा कुकुर कस भीड़ म रहिथें
सुन्ना अकेल्ला देख झपटथें
जागव नोनी भाँची बहिनी
नईं सुधरयँ कमीनी औलाद मन…!
घुसा लात खाय के बुता लात खाए के
करथे कमीना कुजात मन…!!
नसा मतौना खा के फुल
रहिथे बुद्धि अऊ भेजा गुल
रोज-रोज कंझट दिन-रात झंझट
संझा-बिहनिया पहाव झन…!
घुसा लात खाय के बुता लात खाए के
करथे कमीना कुजात मन…!!
धरम जानयँ न सरम जानयँ
न मान मरियादा के मरम जानयँ
ख़ुद बर गरु भुइँयों बर गुरू
बाढ़य बोझा घर के सौ टन…!
घुसा लात खाए के बुता लात खाए के
करथे कमीना कुजात मन…!!
माई लोगन के काया घूरयँ
टमरे छुए के घात करयँ
पनही जूता मिल के कूटा
धोवावय चरित्तर के दाग मन…!
घुसा लात खाए के बुता लात खाए के
करथे कमीना कुजात मन…!!
कवि- जोहन भार्गव सेंदरी जी
बिलासपुर छत्तीसगढ़
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