छत्तीसगढ़ी कविता- मैं अंगना के चौंरा...कवि जोहन भार्गव जी।

 

मैं एक अंगना के चौंरा…!



गोंदा फूल के पंखुड़ी तोर ताजा-ताजा मुखड़ा…!
मैं सम्मोहित बिधुन बड़ा मैं गुन-गुन गुन-गुन भँवरा…!!
एक परिवार के मरियादा हवँ एक परिवार के धुरा…!
दाई-ददा के दुलौरिन मैं एक अंगना के चौंरा…!!

बाग-बाग म डाल-डाल म मंडराना तोर बूता
एक बागीचा एक थाँव के मैं शोभा सुंदरता
तयँ सँवरा कई साँप पोंसइया तोर का भरोसा लबरा…!
दाई-ददा के दुलौरिन मैं एक अंगना के चौंरा…!!

किरिया खा के कहत हौं सजनी मान ले मोर कहना
प्रेम के पक्का घर म रखिहौं मया के देहूँ गहना
साँप पोंसइया झन लबरा कहि लगन हावय गहरा…!
मैं सम्मोहित बिधुन बड़ा मैं गुन-गुन गुन-गुन भँवरा…!!

निश्छल प्रेम के सदी पहागे कलजुग के ये जमाना
काम निकाले बर मनखे के कई ठन गोठ बहाना
कुल कुटुम्ब जन-नता समाज मोर मयारूक पहरा…!
दाई-ददा के दुलौरिन मैं एक अंगना के चौंरा…!!

कवि- जोहन भार्गव जी
सेंदरी बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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