चिरई-चिरगुन
घर के अंगना म अब नइ आवय चिरईया,
चु-चु कर के नइ जगावय चिरईया।
पेड़-पौधा के छांव सबो कोती ले गंवागे,
तिपत भुइँया म कहाँ लुकवाय चिरईया।
नदिया तरिया सब सुक्खा पढ़ गे,
पानी पिये बर चिरई-चिरगुन तरस गे।
गांव-गली पक्का मकान बनगे,
भूख-प्यास म चिरई बेचारी खार म मरगे।
दाना-पानी कहूँ नही पावय चिरईया,
अब्बड़ दुरिहा ले दाना खोज के आवय ठीहा।
मनखे ल देख डरवाय जीव ह,
कहाँ पाबे जी अब सिरावत हे चिरईया।
युवा कवि साहित्यकार
अनिल कुमार पाली
तारबाहर बिलासपुर छत्तीसगढ़
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