छत्तीसगढ़ी कविता - दाई-ददा लइकन बर होथे कुम्हार, गीली सुक्खी माटी ल गड़हय अकार, -जोहन भार्गव जी सेंदरी बिलासपुर छत्तीसगढ़

 दाई-ददा लइकन बर होथे कुम्हार…!!




दाई-ददा लइकन बर होथे कुम्हार…!

गीली सुक्खी माटी ल गड़हय अकार…!!


बरगद के बीजा नांदय कोख म

अंकुर खुद बाड़हय अपने खोज म

देखते-देखत ले थे भारी विस्तार…!

दाई-ददा लइकन बर होथे कुम्हार…!!

गीली सुक्खी माटी ल गड़हय अकार…!!


डैना पोठावत ले तोरा अउ फिकर

खोंधरा ल छोड़ के उड़ावय जी भर 

आजा मैना सुआ झन होवय मुंधियार…!

दाई-ददा लइकन बर होथे कुम्हार…!!

गीली सुक्खी माटी ल गड़हय अकार…!!


कोख एक आवा पकय अंग-अंग

आनी-बानी के जीनिस सिरजय संग-संग

कोनो गुनी ज्ञानी कोनो निचट अनसुहार…!

दाई-ददा लइकन बर होथे कुम्हार…!!

गीली सुक्खी माटी ल गड़हय अकार…!!


मोर खने माटी ओला छाँटिहवँ निमेरिहवँ

देखे लाइक मूरत बना के सजाहवँ 

जउने देखय लागय ओला ओकरे चिन्हार…!

दाई-ददा लइकन बर होथे कुम्हार…!!

गीली सुक्खी माटी ल गड़हय अकार…!!


 -जोहन भार्गव  जी 

सेंदरी बिलासपुर छत्तीसगढ़




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