छत्तीसगढ़ी कविता- लहुट चल जँवारा अपन खोंधरा म ढल गे मंझनिया, कवि जोहन भार्गव जी।

 लहुट चल जँवारा…!!

लहुट चल जँवारा अपन खोंधरा म ढल गे मंझनिया…!

जी भर के चर ली खेत डोलिया म ढल गे मंझनिया…!!


दिन भर घूमेन बागे-बगइचा नदिया नरवा 

गाँव-गवईं शहर छत छानही तरिया घुरुवा 

मन भर बूलेन घर-कुरिया म ढल गे मंझनिया…!

जी भर के चर ली खेत डोलिया म ढल गे मंझनिया…!!


अब के चौमासा बिकट गर्रा-धूँका भारी पानी

दूबक लुकाके खोलटा म रहिके बचाई जिनगानी

सासत म जिनगी कहाँ जाबो दूरिहा ढल गे मंझनिया…!

जी भर के चर ली खेत डोलिया म ढल गे मंझनिया…!!


मौसम हे जालिम शिकारी जमाना देखे रहिबे 

छोट-अकन हम जीव सुंदर हे काया सोंचे रहिबे 

जीबो सरोत्तर अपन घर-दूरा म ढल गे मंझनिया…!

जी भर के चर ली खेत डोलिया म ढल गे मंझनिया…!!


पेट के आगी म आगी लगय ये बुतावय नहीं

खा-पी ले कतको फेर ये पापी दहरा पटावय नहीं 

भर गे तभो चाहे रहि जाए ऊना ढल गे मंझनिया…!

जी भर के चर ली खेत डोलिया म ढल गे मंझनिया…!!


कवि- जोहन भार्गव जी 

गड़रिया समाज सेंदरी बिलासपुर 



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